Monday, March 28, 2016

साँच बीना सुमिरण नहीं,
बीन भेद न भक्ति होय।
पारस में पडदा रहा,
कैसे लोहा कंचन होय?
(पारसका मतलब जिसके स्पर्श से लोहा भी सोना हो जाता है। कंचन का मतलब सोना/Gold)


संत कबीर - भगवान तुम्हारे अंदर है… बाहर नही।
ज्यों नैनो में पुतली(Eye Ball), त्यों मालिक घर माही।
मूरख लोग न जानिए, बाहर ढूँढत जाय॥
जैसे तिल में तेल है, ज्यों चकमक में आग।
तेरा साईं तुझ में है, तू जाग सके तो जाग॥
कबीरा ज्ञान बिचार बिन, हरी ढूंढन को जाय।
तन में त्रिलोकी बसे, अब तक परखा नाय॥
निर्बुद्ध को सुझे नही, उठी उठी देवल जाय।
दिल देहरा(शरीर) की खबर नही, पाथर के पीछे जाय॥
तेरे हृदय मे हरी है, ताको न देखा जाय।
ताको जब देखिये, दिल की दुविधा जाय॥
शीतल शब्द उचारिये, अहम मानीये नाही।
तेरा प्रीतम तुझ में है, दुश्मन भी तुझ माही॥
तेरा साई तुझमे जो, बचपन मे है वास।
कस्तुरी का हिरण जो, फिर फिर ढूँढे घास


संत कबीर के गर्व, अहंकार के बारे मे दोहे
मै मै बडी बलाई है, सके तो निकले भाग।
कहे कबीर कब लग रहे, रुई लपेटी आग।।
आखिर ये तन खाक मिलेगा, काहे फिरत मगरुरी मे।
कहत कबीरा सुनो भाई साधो, साहीब मिले सबुरी मे।।
मान बढाई जगत मे, कुत्ते की पहचान।
प्यार कीया मुख चाटे, बैर कीया फाडे खाय॥
ध्यानी, ज्ञानी, दाता घने। रथी, महारथी मिले अनेक।
कहे कबीर मान(अहंकार) विरहीत, लाखो में एक॥
कबीर कहे गर्वियो, काल पकडी रखा है केस(चोटी/शरीर)
ना जाने कहाँ मरसी, घर या परदेस॥
उंचा पानी ना टिके, नीचे ही ठहराये।
नीचा होय तो भारी पिये, उंचा प्यासा रहे जाये॥
(उंचा पानी का मतलब है अहंकार और गर्व)
माटी कहे कुम्हार से, तू क्या रौंदे मोय।
एक दिन ऐसा आयेगा, मैं रौंदूंगी तोय॥
कबीरा गर्व ना किजीये, कबहूं हंसीये ना कोय।
तेरी ये नाव समुद्र में, ना जाने कब क्या होय॥
धन जाये तो क्या हुआ, मान ना जल्दी जाय।
मान बडे मुनिवर गये, मान सबन को खाय॥
मान बढाई ना करे, बडे ना बोले बोल।
हीरा मुख से ना कहे, लाख हमारा मोल॥
कबीर गर्व न किजीये, चाम(चमडी) लपेटी हाड़।
एक दिन तेरा छत्र सिर, देगा काल उखाड़॥
राज पाट धन पायके, क्यों करता अभिमान।
पड़ोसी की जो दशा, भई सो अपनी जान॥
अहं(अहंकार) जाके हृदय में, ज्ञान मिले सबूरी में॥
कहाँ फिरत मग़रूरी में।आखिर तन मिलेगा खाक में।
कबीर गर्व न किजीये, ऊँचा देखि आवास(घर)।
काल पडे भुंइ(धरती) लेटना, ऊपर जमसी घास॥
काल फिरे सिर ऊपरे, हाथों धरी कमान।
कहे कबीर गहु ज्ञान को, छोड़ सकल अभिमान॥
बडा हुआ तो क्या हुआ, जैसे पेड़ खजूर।
पंछी को छाया नही, फल लागे अति दूर॥
पाकि खेती देखकर, गर्व किया किसान।
अभी झोला(संकट) बहुत है, घर आवे तब जान॥
लकडी कहे लोहार से, तू क्या जाले मोय।
एक दिन ऐसा आयेगा, मैं जलाउंगी तोय॥
मन अभिमान न कीजीये, कहे कबीर समझाये।
जो सिर अहं (अहंकार) संचरे, पडे चौरासी जाय॥
जहां आपा(अहंकार) तहां आपदा, जहां संकट तहां शोक।
कहे कबीर कैसे मिटे, चारो दीर्घ रोग॥
(चार रोग - 1)अहंकार 2)आपदा 3)संकट 4)शोक)
आपा(अहंकार) मिटा हरि मिले, हरि मिटा सब जाय।
जब मैं(अहं) था तब हरी नहीं, अब हरी हैं मैं(अहं) नहीं।
सब अंधियारा मिट गया, जब दीपक देखा मन माही॥

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